प्रखर राष्ट्रवादी श्रद्धेय डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी

दिंनाक: 06 Jul 2016 15:49:02


देश की एकता व अखंडता के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर इतिहास में अमर भारतीय राजनीति में राष्ट्रवाद के मुखर वक्ता, शिक्षाविद्, कानूनवेत्ता, सामाजिक व सांस्कृतिक दुनिया समेत राजनीतिक क्षेत्र की शीर्ष हस्ती डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी आज भी देश की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा पुरुष हैं। 6 जुलाई, 1901 को कलकत्ता में न्यायाधीश सर आशुतोष मुखर्जी और लेखिका जोगमाया देवी के घर जन्मे श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी विषय में स्नातक की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की। बंगलाभाषा में परास्नातक करने के बाद 1924 में उन्होंने कानून की उपाधि ली। इसी वर्ष पिता की मृत्यु के बाद उनके जीवन की दिशा ही बदल गई। उन्होंने लिखा भी है- ''1924 में मस्ती और आनंद मेरे जीवन से गायब हो गए। मेरा जीवन बदल गया। एक नया अध्याय शुरू हुआ जो आज तक जारी है।'' कलकत्ता उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के तौर पर पंजीकृत होने के बाद 1926 में अध्ययन के लिए वे इंग्लैण्ड गए। 1927 में बैरिस्टर बनकर वहां से लौटे। मात्र 33 वर्ष की आयु में 1934 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बनकर डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने इतिहास रचा। 1937 में उन्होंने विश्वविद्यालय में दीक्षान्त भाषण हेतु गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को आमंत्रित किया जहां गुरुदेव टैगोर ने बंगलाभाषा में भाषण दिया था।
11 वर्ष की आयु में विवाह होने के बाद डॉ. मुखर्जी का दाम्पत्य जीवन दीर्घकालिक नहीं रहा और 1933 में पत्नी सुधा देवी की असमय मौत ने उन्हें समाज और देश के लिए बड़ा कार्य करने की प्रेरणा दी। डॉ. मुखर्जी ने शिक्षा और कानून के साथ ही राजनीति के क्षेत्र में भी धमक के साथ प्रवेश किया। 1929 में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करते हुए कांग्रेस की ओर से बंगाल विधान परिषद के सदस्य बने। इसके बाद वे स्वतंत्र रूप से विधान परिषद् के लिए चुने गए। 1941-42 में वे बंगाल प्रांत के वित्त मंत्री भी बने।
1939 में हिन्दू महासभा से जुड़ने के बाद डॉ. मुखर्जी इसी वर्ष हिन्दू महासभा के 21वें अधिवेशन में विनायक दामोदर सावरकर की अध्यक्षता के साक्षी बने। वे पूरी तरह महासभा में सक्रिय हुए और 1944 में इसके अध्यक्ष बने। 1946 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल विभाजन का समर्थन किया तो हिन्दू महासभा के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन को प्रभावहीन अभियान बताया।
देश की स्वाधीनता प्राप्ति के बाद महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल के आग्रह पर डॉ. मुखर्जी पं. नेहरू के नेतृत्व वाली अंतरिम केन्द्र सरकार में उद्योग और आपूर्ति मंत्री बने। 6 अप्रैल, 1950 को पं. नेहरू द्वारा पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खान को दिल्ली समझौते के आमंत्रण का विरोध करते हुए डॉ. मुखर्जी ने केन्द्रीय मंत्रिमंडल व कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। डॉ. मुखर्जी ने इस समझौते को नेहरू की तुष्टीकरण  नीति और स्वयं को चमकाने का प्रयत्न बताते हुए कड़ा विरोध किया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक पूज्य गुरुजी के साथ गहन मंत्रणा कर उनके परामर्श पर उन्होंने 21 अक्तूबर, 1951 को दिल्ली में भारतीय जनसंघ की स्थापना की और इसके पहले अध्यक्ष बने। 1951 के लोकसभा चुनावों में मात्र 6 महीने पुराने भारतीय जनसंघ ने संसद में तीन सीटें जीतीं जिनमें डॉ. मुखर्जी की अपनी सीट भी शामिल थी। समान विचार वाले 32 लोकसभा और 10 राज्यसभा सदस्यों के साथ राजनीतिक पहचान और विपक्षी दल की मान्यता पाने के लिए उन्होंने संसद में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दल बनाया जिसे तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष ने मान्यता नहीं दी।
भारतीय जनसंघ के प्रमुख मुद्दों में समान नागरिक संहिता, गोवध पर रोक और जम्मू-कश्मीर को मुस्लिम राज्य होने के चलते संवैधानिक स्वायत्तता का विरोध शामिल था। डॉ. मुखर्जी ने इन सभी मुद्दों पर देश में एक व्यापक माहौल बनाया। वे कश्मीर में धारा 370 समेत मुस्लिम तुष्टीकरण की कांग्रेस की नीति का संसद के बाहर और अंदर डटकर विरोध करते रहे। उन्होंने नारा दिया-''एक देश में दो विधान, दो प्रधान, और दो निशान नहीं चलेंगे।'' जम्मू-कश्मीर में अपने ही देश के नागरिकों को पहचान पत्र की बाध्यता के विधान को डॉ. मुखर्जी ने कांग्रेस और शेख अब्दुल्ला का देश तोड़ने वाला षड्यंत्र बताया। 17 फरवरी, 1953 को पं. नेहरू को भेजे एक पत्र में उन्होंने लद्दाख क्षेत्र की स्वायत्तता की भी बात की थी, डॉ. मुखर्जी के प्रभाव और उनके साथ चलने वाले जन दबाव ने भरपूर असर दिखाया।
प्रजापरिषद के आह्वान पर वैयक्तिक स्वातंत्र्य के पैरोकार डॉ. मुखर्जी ने 5 मई,1953 को जम्मू-कश्मीर दिवस मनाने को देशव्यापी अभियान की हुंकार भरी। 11 मई, 1953 को कश्मीर सीमा पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 23 जून, 1953 को शेख अब्दुल्ला की पुलिस की कैद में बंद भारत मां के सपूत डॉ. मुखर्जी रहस्यमय स्थिति में मृत पाए गए जो आज भी एक पहेली है।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे जननायक, महान शिक्षाविद्, राष्ट्रचिंतक और प्रभावी राजनेता का पुण्यस्मरण भारतवासियों के लिए हमेशा गौरव का विषय बना रहेगा।